आज खुप दिवसांनी वेळ मिळाला म्ह्णुन माझ्या अत्यंत लाडक्या आणि उर्दू साहित्याचे सम्राट मीर तकी मीर यांनी लिहिलेली माझी अत्यंत आवडती रचना इथे देत आहे...
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या
क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या
मीर किती महान होते हे गालीब यांनी खालील रचलेल्या काव्यावरुन कळेल..
रेख्ते के तुमही उस्ताद नही हो 'ग़ालिब'
कहते है अगले ज़मानेमें कोई 'मीर' भी था
कहते है अगले ज़मानेमें कोई 'मीर' भी था
(ग़ालिब, शायरीचा तूच
कोणी मोठा उस्ताद आहेस असे तू समजू नकोस. असे म्हणतात की तुझ्या आधीच्या जमान्यात कुणी मीर ही होता.)
त्याच मीर तकी यांची आणखी काहि रचना -
१. क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़
इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानि अपना ही मुब्तला है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़
कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़
कोयी ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़
मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?
२. क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़
इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानि अपना ही मुब्तला है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़
कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़
कोयी ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़
मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?
३. दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो , ये बस्ती उजाड़कर
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